Wednesday, November 7, 2018

20 रुपिया प्लेट

कलकत्ता के कालीघाट इलाके से कुछ दूर पर ही मैंने हास्टल लिया था। आज मुझे अपने घर से हास्टल के लिए निकलना था। हालांकि, बाकियों की तरह ना ही मुझे घर से दूर रहने का कोई डर था ना ही रैगिंग करने वाले स्टूडेंट्स की कोई परवाह।
पर आज सुबह से ही घर में एक अलग तरह का वातावरण साफ जान पड़ रहा था , मेरे घर ना रहने का डर मेरे माता-पिता के चेहरों पर साफ दिखाई दे रहा था। लेकिन, मैं खुश था आखिरकार जीवन में कुछ बदलाव आने वाले थे।
परन्तु, एक प्रश्न, व्यंग बनाकर बार- बार मेरे सामने प्रकट कर दिया जाता था-
' कहो उहा तोहार कोटा पूरा करे वाला के मिली?' अथार्थ वहां तुम्हें मन मुताबिक और भर पेट खाना कौन खिलाएगा?।
सदियों का अनुभव लिए युवा से प्रोढ़ हो चुके हर व्यक्ति की जुबानी सुन चुका था- ' वहां कोई क्यूं बढ़िया बनाएगा? जो मिलेगा वही खाना पड़ेगा।'
पर मैं इन बातों को मन-गढ़त समझता था। क्यूं न समझूं?! भला हमारे चचेरे भाई जो की बनारस में पढ़ते थे उनके साथ तो ऐसा कुछ नहीं था। उल्टे गोलू भैया की तोंद में कोई कमी नहीं आयी थी। और मैंने तो उनके हॉस्टल का खाना भी चख रखा था, जो की मुझे उत्तम लगता था। खैर, जो-त्यों मैं हॉस्टल पहुंचा। रास्ते भर सोचता रहा की क्या मुझे मम्मी- पापा के पैर छूने चाहिए थे? पर यह सोच कर की वो रो देते, मैं खुद के पैर न छूने के फैसले को सही ठहराने में लगा रहा।
मुझे मेरा कमरा दिखाया गया, मेरे रूम पार्टनर उसी माह की 7 तारीख़ तक आने वाले थे इसलिए कमरा पूर्णतः खाली था। आराम करने की सोची तो आंख फिर संध्या सुबह 6:30 में ही खुल पाई।

पेट से चूर्र की आवाज़ आई तो मन खाने की इच्छा करने लगा। परन्तु मुझे याद आया की वैसे ही पहले से दोपहर और रात्री के भोजन के दाम 70 रुपए हैं मैं व्यर्थ ही संध्या की छोटी-मोटी भूख मिटाने में पैसे नष्ट करूंगा। मन बहलाने के लिए एक पुस्तक पढ़ने लगे पर न जाने कुछ पुस्तक की कहानी से कुछ पेट की भूख से मैं ज्यादा देर पढ़ नहीं सका। करवट लेते ही मेरे मन में ख्याल आया के रोज इसी वक़्त- कभी chowmein, कभी pasta माता जी से किसी तरह जबरदस्ती बनवा लिया करता था। ठंडी आहें भरी और फिर ध्यान पुस्तक की ओर केंद्रित किया। कुछ 1-2 घण्टे बाद बगल के कमरे के एक लड़के से बात हुई। सारे संसार की बातें करने के बाद मुझसे रहा न गया और मैं पूछ ही बैठा-

' এই মাসী টা কি জিজ্ঞেস করতে আসবে রান্নার জন্য?'

अथार्थ क्या यहां की मासी मुझसे खाने के लिए पूछने आएंगी?

तब उसने बताया कि वह और उसके साथी कहीं बाहर खाया करते थे। पर उसने मुझे आस्वस्त किया के वो मुझसे पूछने कभी भी आती होंगी। दरअसल, उस हॉस्टल में कहने पर ही खाना बनाया जाता था। यह आश्वासन पाकर मैं कमरे की ओर चला। पहुंचा तो पापा का फोन आया। पूरे समय यही पूछते रहे की मुझे कोई दिक्कत तो नहीं आ रही है?
और मै पूरी दृढ़ता से जवाब देता-
' अरे ना! ना! कोनो दिक्कत ना हऽ।'

फिर उन्होंने खाने का प्रश्न उठाया और पूछा के खाना खा लिए? इसपर मैंने ' नहीं ' में उत्तर दिया और हॉस्टल में खाने को पूछे जाने का रिवाज़ बताया। तब उन्होंने कहा, साढ़े नौ बज गए हैं, जाकर पूछ लो शायद भूल जाएं। अब तो मेरी भी हिम्मत टूट गई। फोन रख कर मै बाई की तलाश में निकला, कुछ लड़कों के कमरे से गुजरते हुए थाली और रोटी जैसी आकृति दिख रही थी। मैंने अपने कदम अब और तेज़ किए और उन्हें ढूंढने लगा। भेंट होने पर जब मैंने खाने का प्रश्न उठाया तब उसने कहा कि वो मेरे कहने की प्रतीक्षा कर रही थी। उसके चेहरे से साफ़ पता चल रहा था की वो मेरे बारे में भूल गई थी। अब मेरे पास बाहर जाकर खाने के अलावा कोई और चारा नहीं था।

दूसरे लड़के पहले ही जा चुके थे। अब मुझे अकेले ही जाना था। हॉस्टल के दरवान से जब मैंने अपनी दुख गाथा सुनाई तो उसे मुझ पर कुछ दया आई और उसने अपना हाथ उठाकर हवा में लहराते हुए दाएं बाएं का इशारा करते हुए कहा कि वहां पर जाकर खा सकते हैं।
उसके इशारे का अंश भर ही समझ पाया और जल्दी खाने की तलाश में निकला। चौराहे तक पहुंच के नजर दौड़ाई चारों ओर एग रोल, चिकन रोल,चाऊमीन बिरयानी, की दुकानें नजर आईं। मैं भी सबसे उत्तम भोजनालय की तलाश में दो दो रास्ते का भ्रमण कर आया। रास्ते में मन बनाया की बिरयानी खाएंगे परंतु मैन्यू में बीफ की उपलब्धता देखकर मेरा मन नहीं माना, और उसके ठीक उलट एक जर्जर दुकान दिखाई पड़ी। मैं उसकी तरफ कुछ संदेह और घृणा पूर्ण मुख से बढ़ा। किस मुसीबत में फंस गए!
रात बहुत हो चुकी थी और कई होटल अब बंद भी हो चुके थे एक उसी होटल में 2-3 बंगाली लोग दिखाई दे रहे थे, उनको देख मैंने निश्चय किया कि यहीं खाएंगे। ज्यों-ज्यों मैं अंदर बढ़ रहा था उस स्थान की निरउपयोगिता मुझे स्पष्ट हो रही थी। आधे से ज्यादा सामान, सड़क पर बिखरा पड़ा हुआ था। मैं और अंदर बड़ा तो वहां पड़े बेंचेज़ की हालत पर भी मेरी नजर गई, कहीं काले-काले पूर्ण रूप से स्पष्ट ग्रीस के धब्बे तथा उन्हीं पर फेंके हुए चम्मच करछुल देखकर मैं दंग रह गया। और अंदर बढ़ा तो लगा कि, किसी नई दुनिया में पहुंच गया। चारों ओर से घेरे हुए उस स्थान के काले-काले पुराने प्राचीर वहां की शोभा बढ़ा रहे थे, मानो कारागार की दीवारें हो। उन्हीं के पास ज्यों- त्यों, फेंके हुए बड़े-छोटे बर्तनों से वहां की स्वच्छता का अंदाजा भी हो गया। अंदर ही एक बेंच पर बैठे हुए, बेंच पर चोकर बिखेर कर उस जगह का कर्ता- धर्ता रोटियां बेल रहा था। अपने मिडल क्लास औहदे को ध्यान में रखते हुए मैंने प्रश्न किया 'क्या खाना है?'
रोटियां बेलते हुए वहां के बावर्ची ने मेरी ओर नजर दौड़ाई और टूटी-फूटी हिंदी में पूछा रोटी खाएगा या चावल?। क्योंकि मैंने रोटियों की हालत देखी थी इसलिए कहा-
' नहीं ,चावल खाऊंगा'। 'कैसे है?!'
उसने कहा- '
चावल 20 रुपया प्लेट और रोटी 3 रुपया।
रोटी के दाम और उसकी अवस्था को ध्यान में रखते हुए मैंने व्यंगपूर्वक फिर पूछा- 'रोटी कितना?!'
उसने कुछ खीज कर कहा 3 रुपया ।अब खाना खाने की अपनी मजबूरी को जानते हुए मैं अंदर बढ़ा ,देखा तो एक सज्जन जिन्होंने नीली रंग की टी-शर्ट पहनी हुई थी तड़का जैसा दिखने वाला कुछ खा रहे थे मैंने पूछा यह क्या खा रहे हैं? उस युवक का ध्यान मुझपर पड़ा पर उसने उत्तर देना जरूरी नहीं समझा। मन ही मन मुस्कुराता हुआ मैं अपनी बेंच पर बैठा। मेरे सामने वाला युवक भी चावल ही खा रहे था। परन्तु उन तीनों युवकों के चेहरे और पोशाक देखकर मैं भौचक्का रह गया और अपनी बुद्धि को वहां खाने के निर्णय के लिए कोसने लगा। गूथे हुए आटे को थपकी मारते हुए खानसामा साहब उठे और मैंने भी अपनी दृष्टि उन्ही की तरफ दौड़ा दी। उन्होंने एक पतिलानुमा बर्तन के अंदर अपना पूरा हाथ डाल कर चावल को थाली में उछाल दिया। फिर दाल की बारी आई फिर सब्ज़ी की। मैंने कहा सब्ज़ी क्या है। मालिक ने 'पंचमेलि', 'पांच किस्म की' या 'पांच रुपया' क्या कहा मैं कुछ समझा नहीं। पर अब खाना सामने था। चावल की दशा ठीक ही थी। दाल के नाम पर पानी था परंतु पटल जैसी दिखने वाली कोई चीज भी राजा के मुकुट समान चावल और दाल के मिश्रण के ऊपर सुसज्जित थी। साथ ही उसपर पंच्मेली आलू की सब्जी भरपूर मात्रा में न्यौछावर कर दी गई थी। सोचा अब खाना आ गया है तो खाते- खाते निरीक्षण किया जाए।
दाल जहां भी जान पड़ी उसी दिशा में चावल को घूमा दिया और मुंह में डाला।

मिश्रण को मुंह में डालते ही सदियों से चली आ रहे प्रश्न का व्यंग भी समझ आता रहा। आलू कुछ बेढ़ंगे से कटे हुए थे। कुछ छिले थे, कुछ यूंही फेंक दिए गए थे। मिश्रण में मिर्च की डंठल दिखी तो मन और अप्रसन्न हो गया। और मैंने उससे कहा - 'लंका देना दादा'। उस रसोईए ने जो कि अपने आप को किसी five-star होटल के रसोईया से कम नहीं समझता होगा, झटपट एक बोरिये से 10-15 मिर्च ले आया और सामने पड़ी कटोरी में फेंक दिया। आमतौर पर धोकर खाए जाने वाली मिर्च मुझे यूंही निगलनी पड़ी। कुछ ही समय में मैं होटल का सारा हाल जान गया। परंतु अब भी दाल में विराजमान उस पटल की तरह दिखने वाली वस्तु को मैं न पहचान पाया। वह देखने में तो पटल जैसी ही थी पर बहुत ठोस थी। इसलिए मैंने मालिक की नज़र से बचाते हुए थाली के एक ओर फेंक दिया। तभी मेरे बगल में बैठे व्यक्ति को, उसकी थाली दुबारा धोते देख मैंने सोचा- ' मेरी थाली धुली थी?' यह प्रश्न मुझे अंत तक परेशान करता रहा। पूर्ण रूप से अतृप्त होने के बाद सब्जी के विशिष्ट स्वाद को भुलाने के लिए मैं पुनः मिर्च को खाया, और हाथ धोने का निश्चय किया।

होटल मालिक को 20 रुपए थमाकर मैं बाहर निकला। तभी कुछ देर बाद पिताजी का फोन आया। पूछने पर मैंने कहा - ' खाना अच्छा था' , '20 रूपिया प्लेट '। फोन रखकर हास्टल की ओर बढ़ता हुआ, मैं खुश था कि 50 रूपए बचा लिए। परन्तु न जाने क्यों मां के हाथ के तड़के की याद परेशान करती रही।

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