Tuesday, October 11, 2022

छोटे घर की बेटी

हां भाई सही पकड़े हैं  " छोटे घर की बेटी... "

भई हम तो न है बडे़  और न बड़ा बन्नो के शौक़ ही हैं, हां माल मोटा मिले और बड़ा घर मिल जाए और छोटा हो दुल्हा के दूल्हे के विचार हमे क्या?

सही पकड़े हैं, बियाह करने जा रही हूं मैं। मै यानी चंपा चमेली..... बचपन का सपना बस पूरा ही होने वाला है। पहले फैशन में सजती थी अब पिया जी के लिए टिकुली और नखुनपालिश और फाउंडेशन पोतूंगी। आप अचंभित होंगे मैंने खुदको प्रेमचंद  वाली उस आनंदी से परे छोटे  घर की बेटी क्यू कहा? भाई बात बड़ी  सीधी सी है,। हम आनंदी की तरह बड़े विचारो वाली नही जो देवर की जली कटी सुने, फिर भी घर जोड़े रखे।।। हम छोटे घर की सही। 

हां इससे क्या फर्क पड़ता है, के लड़के वाले खून चूस ले जाए, मेरे परिवार को नजरंदाज करे... मैं भी तो शादी के बाद उनका खून.... अ अ... अहम... ह....

नही मतलब मेरी कोन सी रोज शादी होनी है। मैं तो इतनी excited हु के अभी से सब सामान खरीद लाई हु... "उनसे" भी फोन पे रोज बात हो जाती है, दिक्कत होती थी। तोह साफ़ कह दिया कान खोसना दिला दीजिए, बहुत दीवाने है, अगले दिन भिजवा दिए...

हां no compromise कोई मरे या जिए हमको शादी परियों वाली चाहिए हम तो न बताएंगे सच्चा हाल और न खुद पैसे कमाते हैं के जाने पैसे कहा से आते है।

मै तो बस प्रेम की दीवानी हु और प्रेम की हो जाना चाहती हूं। मै और मेरे प्रेम खूब
buffet का खाना खाए और गाड़ी से निकले फिर उन का टेंशन बनूंगी I mean जीवन साथी।

मै छोटे घर की बेटी जल्द ही "छोटी बेटी commission" का प्रस्ताव सदन में लाऊंगी और सरकार से मांग करूंगी के मुझसी, और अबला सारी छोटी बेटियां शादी बेफिक्री से करे और हमारा नारा होगा - "शादी बार बार थोड़ी होती है।"

मुंह काला हो प्रेमचंद का।

प्रणाम।

- खुदकी चंपा चमेली

Friday, April 10, 2020

खुशमिजाज लड़कियां


आपने 'जब वी मेट ' फिल्म जरूर देखी होगी, उसमे करीना कपूर का पात्र बहुत चुलबुला दिखाया गया है। बहुत छटपट, हर पल को जिंदगी से भर देने की चाहत उसके दिन को चलाती थी। ऐसे ही कई और हिंदी फिल्में और हैं, जिनमें ऐसे ही रूप में लड़कियों को दिखाया गया है। पहले मैं इन्हें पागल समझता था। इनके चुलबुले पन को पद्रे का एक नाटकीय चित्रण मानता था। पर जैसे जैसे बड़ा हुआ असल जिंदगी में भी लड़कियां ऐसी ही दिखाई दी। अपनी सबसे अच्छी सहेली हो या सबसे बड़ी दुश्मन, ये इस उत्सुकता से गले लगा लेती हैं जैसे छोटा बच्चा कई दिनों के जिद्द के बाद मिले खिलौने पाकर उत्सुक होता है।
इतनी गर्मजोशी आती कहा से है इनमें?!!

धीरे- धीरे उम्र के साथ दिमाग विकसित हुआ, घर से बाहर निकला तो कई भ्रांतियां भी टूटी। हर गैर नारीवादी पुरुष की तरह मुझे भी अपनी भ्रांतियां टूटने का अक्सर दुख़ हुआ करता था। फिर अपने मन को दुःख से बचा लेने के लिए मैंने एक टोटका अपना लिया - " आदमी को जो चीज़े समझ नहीं आती, वह उनके पक्ष में भ्रांतियां बना लेता है" ।
टोटका सटीक था मुझे भी अपने नीचपन पर अब कोई दुःख ना रहा और स्त्रियों का यह नयापन मै पचा सकने लगा।
ख़ैर बात लड़कियों की थी। हां!!, तो इनके (लड़कियों के) और गुण भी थे जैसे- किसी भी जगह, कैसे भी माहौल में इनका नाचने का जी कर जाना। ऐसी मै दो तीन लड़कियों को जानता हूं जो किसी भी वक़्त नाचने को उत्सुक रहती हैं। अब मेरी बहन को ही ले लीजिए- कल मुझे नाच सिखाना चाहती थी।
पर इसके विपरित कुछ और तरह की लड़कियां भी होती हैं जो ' गुमसुम' रहती है। ख़ैर, उनका अध्ययन करने का मुझे कभी मन नहीं हुआ। तो मेरे हिसाब से लड़कियों की दो ही प्रजातियां हुई - एक वह जो बहुत ' उत्सुक' स्वभाव की होती हैं, सीधे शब्दों में "खुशमिजाज लड़कियां" और दूसरी "गुमसुम" सी।
ख़ैर, दूसरे पहलू की बात करें तो जैसे ' जब वी मेट' पिक्चर में करीना के साथ हुआ था, उसका पहला प्रेमी उसे छोड़ देता है और वह टूट जाती है। सारी खुशमिजाजी छोड़ देती है। वैसे ही मैंने कहानियों और असल जिंदगी में होते देखा है।
कहानियों के हिसाब से आप ' निर्मला ' (मुंशी प्रेमचन्द जी) को अगर पढ़ें तो, उस लड़की निर्मला में आप ठीक वही सारे गुण पाएंगे जो मैंने "खुशमिजाज लड़कियों " में गिनाए थे। इस कहानी में एक सिन्हा साहब के लड़के होते हैं, जो तय की हुई शादी को दहेज ना मिल पाने के कारण त्याग देते हैं। दहेज इसलिए नहीं मिल पाता क्योंकि निर्मला के पिता का देहांत हो गया था। इन सब घटनाओं के बाद निर्मला एक अपने से कहीं बड़े व्यक्ति, ' मुंशीजी' के साथ शादी कर लेती है। शादी के चंद वर्षों में ही असंतुष्ट गृहस्थ जीवन के कारण उसके हसीं- ठिठोली सब बंद हो गए और उसका खुशमिजाजपन जाता रहा। अंत में निर्मला का देहांत हो जाता है, वह अपने इस बदले रूप को और रंगहीन जीवन से हार मान लेती है और शरीर त्याग देती है।
निज जीवन में मै भी एक खुशमिजाज लड़की को जानता था।
उसके मा- बाप कम पढ़े लिखे थे और बाप अक्सर मा को जानवरो की तरह पीट दिया करता था। सिर से खून तक आ जाया करता था। दबे शब्दों में कहूं तो, उस लड़की और मेरे बीच बहुत अच्छे संबंध हो गए थे। आगे जब मुझे उसके परिवार का पता चला तो मैंने सारे नाते तोड़ उसे अलविदा कह दिया। डरपोक था।
वह लड़की बहुत ही सीधी- साधी थी। ठीक उस पिक्चर की नायिका की तरह अन्दर से बेहद चंट और उत्सुकता से भरी। मा के चले जाते ही फोन करना और देर तक छुप के बातें करना, उसके कई लक्षण थे जो मुझे बहुत चकित करते थे। ऐसे तो कभी घर से बाहर न जाती पर अक्सर मुझे तोहफे लाया करती और चूपके से बुलाकर दे दिया करती। मैं उसकी इन प्रतिभाओं का कायल था।
वह शायद और प्रतिभाओं की धनी रही होगी। पर उसकी यह ' खुशमिजाजी' की प्रतिभा मुझे आजतक प्रभावित करती है। हा, मेरे जाने के दो- तीन सालों बाद फिर उसे देखा है। दुबली सी है, मंदिर जाती है ज्यादा पूजा करती है, शायद। मा- बाप को शायद पता चला हो सो किसी वक़्त अकेला नहीं छोड़ते। सोचता हूं, क्या यह वही लड़की है, जो मेरे मुंह में मिठाईयां ठूस दिया करती थी, और जिसे खाने के बाद मै बेशर्मी से पानी मांग लेता, और फिर भी वह मुस्कुरा कर पानी पिला दिया करती थी!?
क्या मैंने उसकी खुशमिजाजी छीन ली?!
मै अब सड़कों पे ज्यादा निकलता हूं, पहले पुरुष मित्रों की संख्या ज्यादा थी पर अब लड़कियां ज्यादा हैं। अब अक्सर ऐसी लड़कियों से मिलता हूं जो सिगरेट पिती हैं, और गालियां बकती हैं। मैं मुस्कुराता हूं। मै अब नारीवादी होने का ढोंग नहीं करता। और जब कोई ऐसी लड़कियों की बुराई करता है तब मैं कहता हूं-। " मनुष्य को जो बातें समझ नहीं आती, वह उनके पक्ष में भ्रांतियां बना लेता है"।




Monday, November 25, 2019

Apologies to Ambedkar


"If I find the constitution being misused, I shall be the first to burn it.”
- Ambedkar

No idea if today is the day we should really wish each other 'Happy constitution day' or apologise to Ambedkar for the abuse done to his constitution. 
"We The People" have come back to square one. Religious and communal divide is more than visible in today's 'political' India. I remember in school how we used to think that early Indians were stupid for getting divided so easily by foreign powers. The same thing is happening right now except the 'rulers' are domestic this time.
Private institutions of the capitalist are categorised as 'institutions of imminence' and reinforced with public money. 
On the other hand, public institutions ( universities , schools)are underfunded and the lathicharge is done upon the students who demand for cheaper education. (from the poor sections). Ministers who are elected under the impression to 'serve the people' are serving themselves. We can see that in Maharashtra. Super 30 had tried to change the concept of 'Raja Ka Beta Raja Nahi Banega' but sadly Uddhav Thackrey watches only Marathi. Fadanvis is more keen to be the 'sevak' than before. So much that he had to take an oath early in the morning. With that another sevak comes up in my mind. But that's for later 😅.
Maybe, I am a pessimistic person. But, I have found out a cure for that too. I am listening to 'Mann ki Baat' more often and every day getting 'DNA' Analysis of my brain done  by professionals. Also, joint-rolling is something I'm trying to learn, because at times when govt. entities like - Bharat Petroleum, Indian Railways are being sold out. It is only joint that can pump some positivity into me. Also, according to a study by 'Durniti Aayog' the visible signs of unemployment are diminished by smoking joints.
Last but not least 'JIO..........or jine do'.

Thursday, November 7, 2019

The unforgettable Curse

I am a very nostalgic person and find comfort in the past.
In 2015, sitting in the back benches of my tuition class(studying math & stuff) I and the guys were disturbing the class. We were always very ignorant of whatever was taught in the class and used to make fun of the teachers. Little did I know that one of my teachers will tell me the biggest set of traumatic words that will change the course of my life. Annoyed by our constant hooting and 'chakkallas' our physics teacher turned towards us with a grim and heavy face. We knew we had done enough to get a 'lecture' of sorts 'again'. But this time it was different, he opened his lips and said the worst possible thing I ever heard. He said-

'Bahut mja aarha hai tu log ko, abhi dost log acche lag rhe hai, karle jyda din nahi hai 12th k bad dekhna kon kha jyga, ek dusre ko yad bhi nahi rakhoge'

I knew then something was strange about this. But soon after 12th ended we were struck with this reality. Most of my friends got separated, many left studies due to family pressure and started doing menial jobs, many switched to different disciplines. The girl I loved then, moved on to a wonderful college only to disappoint me with 'Who Raman?'
Despite all this, I never thought my childhood friend would be separated from me. We were studying together for past 5 or so years. Regardless of all pressure from our parents we never left each other's side. The memories of our first cigarette  to our first girlfriends we had seen everything together. But 12th changed it all, it's been years we hardly meet.
Everyday while going to bed the words of that physics teacher rings in my ears. It was not a warning, it was a curse.

School का duster

वो school का duster याद है? अरे ! वहीं लकड़ी का टुकड़ा, जिसमें सफ़ेद पट्टी लगी होती थी, जो ब्लैक बोर्ड को मिटाने के काम आती थी और कभी कभी teacher जिसको फेंक कर मारा करते थे। याद आया?
आज एक स्कूल के बाहर से गुज़र रहा था तभी एक बच्ची को ज़ोर ज़ोर से दीवार पर डस्टर पीटते देखा। डस्टर को पीटते हुए, लड़की ने अपनी नाक सिकोड़ रखी थी, धूल से बचना चाहती थी शायद। पर धूल का वो गुबार हमेशा की तरह हाथों और चेहरे सबपर जाकर बैठ गया। बहुत खूबसरत था वो नजारा, मानो एक पल के लिए मै स्कूल लौट गया।
डस्टर के साथ कुछ कड़वी यादें भी है, स्कूल के maths teacher Shri Gopal krishna sir एक बार डस्टर से मुझे धोए थे। क्लास को परेशान कर रहा था। खन्ना जी, चांडक, और मै जम कर धोए गए थे। अक्सर पिछली बेंच के बच्चे ही डस्टर से लतियाए जाते थे, खन्ना जी भी डेली ही लात खाते थे, लेकिन उस दिन मेरी बारी थी, सर जी उछल उछल कर मार रहे थे, और मै pokemon की तरह dodge कर रहा था। कमाल का नजारा था। मार खाते हुए खुद मेरी हसी छूट रही थी।
उस दिन को याद करता हूं, तो फिर से स्कूल पहुंच जाता हूं, जैसे की आज।





Wednesday, May 15, 2019

Roll -Camera, aaannd.... VIOLENCE!!!

आज बाल कटाने सैलून गया था... 
वहाँ पडे TV  में news channel लगा हुआ था।  समाचार में बता रहे थे कि ईश्वर चंद्र विद्यासागर  को बंगाल में पटक दिया गया है।  दोष BJP  और TMC के युवा कायकर्ता एक दूसरे पर लगा रहे थे।  खैर,  पटका किसी ने हो, मुझे खास दुख नही,  ब्लकि दया भावना है। उन युवाओं के लिए जिन्होंने उन्हें गिराया। शायद ही वे कभी इस अपराध की गंभीरता को समझ पाएंगे। वैसे भी अब आदर्शों को कौन याद रखता है साहब?
आजकल तो नेता भी नचनिया,  और जनता भी।  मूल्यों की भी जगह filmy scripts ने ले ली है।

बंगाल हो या उत्तर प्रदेश,सबने समझ लिया है कि अब तो मूल्यों की राजनीति समाप्त है।  इसिलिए शायद Urmila Matondkar मैदान में उतरीं।  सूनने में आया कि जब वह मेकअप कर उठीं तो अचानक, उन्हे समाज में इतना अन्याय दिखा की वे झट से जाकर Congress से जुड़ गईं।  उधर,  दीदी ने भी उन्नति ( উন্নয়ন)  के मुर्झाते पौधे में पानी डालने के लिए मिमी चक्रवर्ती,  नूसरत जहाँ,  सूपरस्टार देब,  मूनमून सेन का सहारा लिया,  साथ ही सत्ता में वंशवादी ताकतों के खिलाफ अपने भतीजे अभिषेक को भी गोद में बिठा लिया है।
BJP भी पिछे क्यों रहे? आजमगढ़ से निरहूआ  को उतार दिया, और सनी देओल को ढाई किलो के हाथ के साथ गुरदासपुर रवाना किया।  बाकी पार्टियों ने भी कोई तिकड़ी लगाई होगी,  मेरा विश्वास है। साथ ही यह भी यकीन है कि लोकतंत्र को बचाने उतरे हमारे  Cinema Stars बहुत मार्मिक होगें,  और जनता की परवाह करते हैं। हाँ, गलती हमारी होगी अगर ये लोग न जीत पाए। इसलिए जरुरी है कि, देश के लोग खूले  हाथों से इन लोगों के मेकअप के सामान के लिए योगदान करें।

अब नया युग है। यह ध्यान रखिये।

इसके साथ ही देश की सभी लोकतांत्रिक पार्टियों से अनुरोध है कि, कृप्या थोड़ा और मार्मिक बने, और आपकी जीत के लिए जो वस्तुऐं लगे उनका ही उपयोग करें, बाकी गंगा में फेंक आए।  कहिए तो उन सभी युवाओं की तरह मैं भी- 'गाँधी', 'सुभाष चंद्र',  'विद्यासागर', 'भगत सिंह' सभी के विचारों और सिखाए नाकाफी मूल्यों की गठरी बाधने में  मदद करूँगा।
-रमन

Tuesday, March 26, 2019

भारतीय जनता का default mode

क्या है, भारतीय जनता का मिज़ाज? कुछ दिनों में इलेक्शंस शुरू होंगे फिर exit polls ... सब कुछ साफ़ दिख जाएगा, के कौन जीता कौन हारा. Election का अब cricket से कोई दूर का अंतर नहीं बचा, जनता के लिए 'क्या लगता है, कौन जीतेगा?' मायने रखता है, भले से जितने वाली टीम से देश को क्या तरक्की मिलेगी, ये सवाल लोगो की उन्मादी सीटियों में सेहम कर बैठ जाए.
Default mode का अर्थ है, जैसा पहले था वैसा रहे. मोबाईल में कुछ ना समझने पर इसका use सभी प्राय कर ही लेते हैं. बहुत समय पहले अंग्रेज जो भारत में divide manufacture करके चले गए, हम उसी divide को डिफॉल्ट के मोड पर डाल कर चल रहें हैं।
Hindu- Muslim की लड़ाई ने क्रांतिकारी विचारधाराओं को बोरिया बिस्तर बांधने पर मजबूर कर दिया है. सभी intellectuals अपने अपने हिसाब से अपने धर्म को, या उनके धर्मो की कट्टरता को सपोर्ट करने वाली विचारधाराओं को protection देने में लगे हैं. हिन्दू खाना पीना छोर कर बस 'मंदिर वहीं बनेगा' की रट थामे बैठे हैं। मुसलमान चाय वाले को अपना दुश्मन बनाए बैठा है.
सारी पार्टियां अपने झंडे में हरे और भगवा रंगो को और गाढ़ा करने में जुटी हैं. इन सब से तो यही साबित होता है कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी हम समाज की setting से अंग्रेज़ो द्वारा बनाई default mode को नहीं हटा पाए.

मेरे मुस्लिम दोस्तो ने दुआएं पढ़ ली और वोटर कार्ड को रोज पोछ रहे है, कहते हैं - वोट दीदी को या दादा owaisi को देंगे, कुछ तो rahul gandhi को साल भर गालियां देने के बाद भी congress को समर्थन देने के लिए तत्पर हैं, दूसरी ओर हिन्दू मित्र mahadev ओर hanuman जी को रोज आरती दिखा रहे, सर पे तिलक लगाए घूमते हैं मानो 'nationalist' का चिन्ह हो.
लगता है, यह default बदलने के लिए कोई और युवा पीढ़ी का इंतज़ार करना होगा. अगर आप ये default बदलना चाहते हैं तो, झंडा उठाकर देखे ' भगवा (saffron) और हरा (green)' दोनों झंडे का हिस्सा हैं. और जो भी पार्टी सिर्फ एक रंग की बात करे उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाएं। यह देश हिन्दुओं और मुसलमानों का है, सिखों और ईसाईयों का हैं, और उन बच्चों का हैं, जो आज भी झंडे को पूरा देखते हैं.
Jai Hind.



छोटे घर की बेटी

हां भाई सही पकड़े हैं  " छोटे घर की बेटी... " भई हम तो न है बडे़  और न बड़ा बन्नो के शौक़ ही हैं, हां माल मोटा मिले और बड़ा घर मिल...