आपने 'जब वी मेट ' फिल्म जरूर देखी होगी, उसमे करीना कपूर का पात्र बहुत चुलबुला दिखाया गया है। बहुत छटपट, हर पल को जिंदगी से भर देने की चाहत उसके दिन को चलाती थी। ऐसे ही कई और हिंदी फिल्में और हैं, जिनमें ऐसे ही रूप में लड़कियों को दिखाया गया है। पहले मैं इन्हें पागल समझता था। इनके चुलबुले पन को पद्रे का एक नाटकीय चित्रण मानता था। पर जैसे जैसे बड़ा हुआ असल जिंदगी में भी लड़कियां ऐसी ही दिखाई दी। अपनी सबसे अच्छी सहेली हो या सबसे बड़ी दुश्मन, ये इस उत्सुकता से गले लगा लेती हैं जैसे छोटा बच्चा कई दिनों के जिद्द के बाद मिले खिलौने पाकर उत्सुक होता है।
इतनी गर्मजोशी आती कहा से है इनमें?!!
धीरे- धीरे उम्र के साथ दिमाग विकसित हुआ, घर से बाहर निकला तो कई भ्रांतियां भी टूटी। हर गैर नारीवादी पुरुष की तरह मुझे भी अपनी भ्रांतियां टूटने का अक्सर दुख़ हुआ करता था। फिर अपने मन को दुःख से बचा लेने के लिए मैंने एक टोटका अपना लिया - " आदमी को जो चीज़े समझ नहीं आती, वह उनके पक्ष में भ्रांतियां बना लेता है" ।
टोटका सटीक था मुझे भी अपने नीचपन पर अब कोई दुःख ना रहा और स्त्रियों का यह नयापन मै पचा सकने लगा।
ख़ैर बात लड़कियों की थी। हां!!, तो इनके (लड़कियों के) और गुण भी थे जैसे- किसी भी जगह, कैसे भी माहौल में इनका नाचने का जी कर जाना। ऐसी मै दो तीन लड़कियों को जानता हूं जो किसी भी वक़्त नाचने को उत्सुक रहती हैं। अब मेरी बहन को ही ले लीजिए- कल मुझे नाच सिखाना चाहती थी।
पर इसके विपरित कुछ और तरह की लड़कियां भी होती हैं जो ' गुमसुम' रहती है। ख़ैर, उनका अध्ययन करने का मुझे कभी मन नहीं हुआ। तो मेरे हिसाब से लड़कियों की दो ही प्रजातियां हुई - एक वह जो बहुत ' उत्सुक' स्वभाव की होती हैं, सीधे शब्दों में "खुशमिजाज लड़कियां" और दूसरी "गुमसुम" सी।
ख़ैर, दूसरे पहलू की बात करें तो जैसे ' जब वी मेट' पिक्चर में करीना के साथ हुआ था, उसका पहला प्रेमी उसे छोड़ देता है और वह टूट जाती है। सारी खुशमिजाजी छोड़ देती है। वैसे ही मैंने कहानियों और असल जिंदगी में होते देखा है।
कहानियों के हिसाब से आप ' निर्मला ' (मुंशी प्रेमचन्द जी) को अगर पढ़ें तो, उस लड़की निर्मला में आप ठीक वही सारे गुण पाएंगे जो मैंने "खुशमिजाज लड़कियों " में गिनाए थे। इस कहानी में एक सिन्हा साहब के लड़के होते हैं, जो तय की हुई शादी को दहेज ना मिल पाने के कारण त्याग देते हैं। दहेज इसलिए नहीं मिल पाता क्योंकि निर्मला के पिता का देहांत हो गया था। इन सब घटनाओं के बाद निर्मला एक अपने से कहीं बड़े व्यक्ति, ' मुंशीजी' के साथ शादी कर लेती है। शादी के चंद वर्षों में ही असंतुष्ट गृहस्थ जीवन के कारण उसके हसीं- ठिठोली सब बंद हो गए और उसका खुशमिजाजपन जाता रहा। अंत में निर्मला का देहांत हो जाता है, वह अपने इस बदले रूप को और रंगहीन जीवन से हार मान लेती है और शरीर त्याग देती है।
निज जीवन में मै भी एक खुशमिजाज लड़की को जानता था।
उसके मा- बाप कम पढ़े लिखे थे और बाप अक्सर मा को जानवरो की तरह पीट दिया करता था। सिर से खून तक आ जाया करता था। दबे शब्दों में कहूं तो, उस लड़की और मेरे बीच बहुत अच्छे संबंध हो गए थे। आगे जब मुझे उसके परिवार का पता चला तो मैंने सारे नाते तोड़ उसे अलविदा कह दिया। डरपोक था।
वह लड़की बहुत ही सीधी- साधी थी। ठीक उस पिक्चर की नायिका की तरह अन्दर से बेहद चंट और उत्सुकता से भरी। मा के चले जाते ही फोन करना और देर तक छुप के बातें करना, उसके कई लक्षण थे जो मुझे बहुत चकित करते थे। ऐसे तो कभी घर से बाहर न जाती पर अक्सर मुझे तोहफे लाया करती और चूपके से बुलाकर दे दिया करती। मैं उसकी इन प्रतिभाओं का कायल था।
वह शायद और प्रतिभाओं की धनी रही होगी। पर उसकी यह ' खुशमिजाजी' की प्रतिभा मुझे आजतक प्रभावित करती है। हा, मेरे जाने के दो- तीन सालों बाद फिर उसे देखा है। दुबली सी है, मंदिर जाती है ज्यादा पूजा करती है, शायद। मा- बाप को शायद पता चला हो सो किसी वक़्त अकेला नहीं छोड़ते। सोचता हूं, क्या यह वही लड़की है, जो मेरे मुंह में मिठाईयां ठूस दिया करती थी, और जिसे खाने के बाद मै बेशर्मी से पानी मांग लेता, और फिर भी वह मुस्कुरा कर पानी पिला दिया करती थी!?
क्या मैंने उसकी खुशमिजाजी छीन ली?!
मै अब सड़कों पे ज्यादा निकलता हूं, पहले पुरुष मित्रों की संख्या ज्यादा थी पर अब लड़कियां ज्यादा हैं। अब अक्सर ऐसी लड़कियों से मिलता हूं जो सिगरेट पिती हैं, और गालियां बकती हैं। मैं मुस्कुराता हूं। मै अब नारीवादी होने का ढोंग नहीं करता। और जब कोई ऐसी लड़कियों की बुराई करता है तब मैं कहता हूं-। " मनुष्य को जो बातें समझ नहीं आती, वह उनके पक्ष में भ्रांतियां बना लेता है"।